मनोज कुमार शर्मा
झारखंड हाथियों का घर रहा है, यहां का राजकीय पशु भी और पूजनीय (गणेश ठाकुर) भी। राज्य में तो मोमेंटम झारखंड योजना का प्रतीक चिन्ह भी हाथी था जी हां उड़ता हुआ हाथी, लेकिन हाल के वर्षों में घने जंगलों के घटने हाथियों के रहवास के उजड़ने से लोगों और हाथियों के बीच टकराव बढता ही जा रहा है।
हाथी .. नाम सुनते ही पृथ्वी के सबसे विशालकाय स्तनपायी का अहसास होता है। भारत देश का एक नाम जम्बुद्वीप (बड़ा, विशाल) भी है और कुछ जानकारों का कहना है कि यहां कभी विशालकाय हाथियों की संख्या इतनी थी कि इसे जम्बुद्वीप भी कहा गया।
हमारे इतिहास में युद्धों में हाथियों के शामिल होने के कई वाकये मिलते हैं। राणा प्रताप के हाथी रामप्रसाद का उल्लेख मिलता है। हाथी अपने विशालकाय शरीर, नाक की जगह लंबी सूंड़़ और ताकतवर प्राणी के तौर पर हम मनुष्यों के लिये हमेंशा एक कौतुहल का विषय रहा है। भारत में यह गणेश के रूप में पूजनीय भी है। लेकिन आज हम इस डॉक्युमेंट्री का विषय झारखंड में हाथियों और मनुष्यों के बीच चल रहे संघर्ष पर है।
हम अक्सर सुनते हैं कि झारखंड के किसी गांव या कस्बे में हाथियों ने घुस कर मकान तोड़ दिया, अनाज खा गये। खेतों में लगी फसल को रौंद दिया, किसी व्यक्ति या मवेशी को कुचल कर मार दिया। इन घटनाओं को सुन कर पहली नजर में हमें यही लगता है कि हाथी एक जंगली विशालकाय ताकतवर पशु है और उसने अपनी आदत के अनुसार यह विध्वंस किया होगा? हम आम लोगों की सहानुभूति भी हाथियों द्वारा सताये गये लोगों के प्रति होती है।
झारखंड में जंगल हैं, झारखंड में जंगल हैं, बड़े बड़े जलाशय डैम , कई अभ्यारण्य और हाथियों के खाने पीने के भरपूर स्त्रोत रहे हैं। इस कारण से यह जंगली हाथियों का घर रहा है। झारखंड का तो राजकीय पशु भी हाथी है। वास्तव में झारखंड देश के उन कुछ गिने चुने राज्यों में एक है जहां के जंगलों में आज भी प्राकृतिक रूप से विचरण करते हुये हाथी पाये जाते हैं। यहां के मूल निवासी हाथियों को पूजनीय मान कर गणेश ठाकुर कहते हैं।
अब यह सोचने वाली बात है कि जिस राज्य में जंगल है और जहां हाथियों को पूजनीय माना गया है वहां हाथियों से लोग परेशान क्यों हैं? सालो भर राज्य के किसी न किसी क्षेत्र में हाथियों का झूंड उत्पात मचाते ही रहता है। खास कर धान की फसल पकने पर और महुआ तथा हडि़या के घरों में रखे होने पर। हाल के दशकों में हाथियों और मनुष्यों के बीच टकराव की घटनायें बढती ही गयी हैं। वन विभाग से लेकर ग्रामीणों द्वारा अपने स्तर पर हाथियों को भगाने के सफल असफल प्रयास भी होते रहते हैं। लकिन मनुष्यों और हाथियों के बीच का यह टकराव रूकने का नाम नहीं ले रहा है।
हमने जब इस टकराव के कारणों को गहराई में जाकर जानने का प्रयास किया तो कई तथ्य निकल कर सामने आये।
एक जाना पहचाना कारण समाने आया कि हम मनुष्यों ने हाथियों के प्रवास क्षेत्र जंगलों को तेजी से खत्म कर दिया है। इससे उनके रहने खाने पीने पानी की कमी होती गयी। दरअसल हाथी कोई छोट जीव नहीं है और यह झूंड में रहते हैं। इनके भोजन और पानी की मात्रा बहुत ज्यादा होती है। कम होते जंगलों ने इनके छुपने और के स्थानों को कम कर दिया । इनके आवास क्षेत्रों में मनुष्यों की घुसपैठ ने उस अतिक्रमण का रूप ले लिया जिसमें हाथियों और मनुष्यों के बीच टकराव लाजमी है। हकीकत ये है कि हाथी अपने जमीन को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। अगर हम गौर करें तो आज से पचास सौ साल पहले जब जंगलों की बहुतायत थी तब हाथी अपने इलाके में खुश थे और कभी कभार दुर्घटनावश ही कोई टकराव मनुष्यों के साथ होता था।
हाथी पीडि़त गांव के लोगों का कहना है कि सरकार और वन विभाग इन्हें पकड कर ले जाये लेकिन यहां से इन्हें हटाये। वहीं अगर हाथियों के पास जबान होती तो वो कहते कि आप मनुष्यों ने हमारे जंगलों में आकर अपना गांव बसा लिया है हमारे खाने पीने की कमी हो गयी, आप लोग यहां से जाओ।
दूसरा कारण है कि हाथी सालो भर अच्छे भोजन और रहवास की तलाश में एक इलाके से दूसरे इलाके में प्रवास करते रहते हैं। इस प्रवास का एक कॉरिडोर होता है जो हजारों सालों से है। बुजुर्ग हाथी नेतृत्व करते हुये अपने झुंड को एक स्थान से दूसरे स्थान उस तय रास्ते से ले जाते हैं। इस रास्ते की जानकारी वह पीढी दर पीढी बताते जाते हैं। आज हाथियों का यह कॉरिडोर मनुष्यों के द्वारा अतिक्रमित कर दिया गया है। इनके आने जाने के कॉरिडोर में अब गांव, बाजार, शहर बस गये हैं। अब जब हाथी अपने इस पुराने कॉरिडोर से गुजरते हैं तो मनुष्यों के साथ टकराव अवश्यंभावी हो जाता है।
हाथी जब अपने तय रास्तों से झूंड में गुजते हैं तो वह कहीं कहीं विश्राम करते हैं। उनका यह विश्राम पहले कौरिडोर के जंगलों में होता था। अब उन जगहों पर गांव या खेत हैं। हाथी अब वहां रूकते हैं तो खेतों में लगी फसल को खा जाते हैं बर्बाद कर देते हैं । इसके अलावा गांव के लोग कौतुहल में उन्हें झुंड में देखने पहुंच जाते हैं। बेवजह भीड़ लगा कर छेड़ते हैं, तरह-तरह की आवाज निकालते हैं, बम पटाखें फोड़ते हैं, आग जलाते हैं इससे हाथियों में गुस्सा व्याप्त होता है। चुंकि इनके झुंड में हर उम्र के हाथी होते हैं बच्चे और किशोर भी होते हैं। हाथियों में पारिवारिक संरचना और लगाव बहुत गहरा होता होता है ऐसे में मनुष्यों द्वारा छेड़खानी करने या नुकसान का कोई भय होने पर व्यस्क हाथी भी आक्रामक हो जाते हैं और मनुष्यों पर हमला कर देते हैं जिससे जान माल की बड़ी हानि होती है।
हाथियों को काबू में करने के लिये हमने कई तरीके आजमाये हैं। इनमें कुछ तरीके हाथी मिर्च और डीजल की गंध पसंद नहीं करते ऐसे में इन्हें इस गंध से भगाना , वन विभाग के प्रशिक्षित हाथियों के द्वारा ही जिन्हें टुनकी हाथी कहते हैं इन्हें पकड़ कर वापस घने जंगलों में छोड़ना और बम पटाखों , आग से डरा कर भगाना शामिल है। हालांकि अब हाथी इन उपायों को समझ चुके हैं आग और पटाखें उन्हें उतना नहीं डराते। उल्टे टकराव में उन्होंने मनुष्यों के भोजन को भी चख लिया है। घरों में रखे महुये और चावल की शराब के लिये वह मकानों को तोड़ देते हैं।
हाथी एक जंगली जीव है, हम मनुष्यों ने उन्हें कैद कर पालतू बनाया है। अगर गौर से देखें तो पूरे विश्व में हम सर्वशक्तिमान मनुष्यों ने विशालकाय जीव हाथियों को भी नहीं बख्शा है। उनका शिकार और कैद कर सर्कस से लेकर सामान ढोने जैसे कार्यों में उपयोग किया है। यहां तक कि मंदिरों में प्रदर्शनी से लेकर पूजा पाठ करने के नाम पर भी इनके साथ क्रूर बर्ताव किया है। कुछ साल पहले श्रीलंका के किसी बौद्ध मंदिर में बीमार टिकीरी नाम की हथिनी की मौत चर्चा में आयी थी। टिकीरी को बीमार होने पर भी पर्यटकों के सामने परेड कराया गया था जिसमें उसकी मौत हो गयी थी। पाकिस्तान के चीडि़या घर में अकेले रह रहे कावन नामक हाथी के साथ अत्याचार या केरल के मल्लापुरम में एक गर्भवती हथिनी को खाने में बम खिला कर तड़पा कर मारने का वाकया। हमने पृथ्वी के सबसे शक्तिशाली जीव होने का बहुत ही क्रूर उपयोग किया है।
झारखंड में भी हाथियों और मनुष्यों के बीच लगातार टकराव जारी है। जब हम किसी ग्रामीण की मौत की खबर हाथियों के हमले में सुनते हैं तो बेशक हमारी सहानुभूति उस व्यक्ति के प्रति होती है। फसल और पशुधन की हानि होने पर भी हम हाथियों को दोषी मानते हैं, पर यह सोचने की बात है कि ऐसा टकराव आखिर होता क्यों है ? आज भी अगर उनके रहवास और जंगल से गुजर रहे कॉरिडोर को बचाया जाये, उनके क्षेत्र में अपने लालच के लिये अतिक्रमण न किया जाये तो गणेश ठाकुर के साथ यह टकराव रोका जा सकता है।