रांची सवाददाता ; जगरनाथ उरांव
जल संकट आज पूरे विश्व में छाया हुआ है। विश्व का एक तिहाई से भी कम जल मानव उपयोग के लिए उपलब्ध है। ऐसे में जल संकट चिंता का विषय बन गया है। पूरा विश्व जल संरक्षण की दिशा में लगातार काम कर रहा हैं। इसके बाद भी दिनों दिन जल का स्तर गिरता जा रहा है। शहरों से लेकर गांवों तक इसकी गिरफ्त में है। हालात इतने नाजुक हैं कि पीने के लिए पानी मुुहल्लों में टैंकरो से आते ही लूट मच जाती हैं। रात को नींद में भी पानी की चिंता सताती हैं। आधा समय पानी के जुगाड़ में ही कट जाता है।
जल संकट विभिन्न राज्यों में तेजी से पांव पासार रहा है। इसके लिए राज्य सरकार कड़ी मश्क्कत कर रही हैं इसी का परिणाम है कि झारखंड सरकार ने जल संरक्षण के लिए ब्लॉक स्तर पर डोभा का निर्माण तेजी से कराया है। जिससे किसानों को सिंचाई के लिए समय पर पानी मिल सके और एक घनी आबादी को जल संकट से कुछ हद तक राहत दिया जा सकता है। यह जल संरक्षण के हिसाब से अच्छा प्रयास किया जा रहा है, लेकिन डोभा के निर्माण में अनियमिता या त्रुटी भी बरता गया हैं जिसका खामियाजा छोटे – छोटे बच्चों को अपनी जान देकर चुकानी पड़ रही हैं । बरसात के समय डोभा में पानी भर जाता है और इसमें डूबने से दर्जनों मासूम बच्चों को अपनी जिन्दगीं से हाथ धोना पड़ता है।
डोभा का निर्माण इस प्रकार से किया गया है कि उसमे घुसने के बाद निकलने का रास्ता पूरी तरह से बंद है। मिट्टी की उंची ढ़ेर में फिसलन के साथ मिट्टी का कटाव भी होता हैा। बीच का गहरा भाग दलदल और बिना पत्थर का घेराव मौत का कुआं जैसा बनाया गया है। उसमें दूर – दूर तक सीढियां दिखाई नहीं देती हैं। तभी किसान खिन्न मन से कहते हैं कि डोभा मत कहो डूबा देगा।यह स्थिति हर साल बरसात में दिखाई देती है।
डोभा के निर्माण से ज्यादा सरकार को चौड़े (आयताकार)निर्माण पर जोर देना चाहिए । जिसकी लंबाई – चौड़ाइ आठ / तीन फिट तक होती है। जो वर्षा जल संरक्षण का विकल्प है जो कम खर्च में ही ज्यादा से ज्यादा संख्या में निर्माण किया जा सकता है इसके निर्माण में तेजी लानी चाहिए । यह शहरी या ग्रामीणों दोनों स्तरों पर प्रभावी रूप से लागू करना चाहिए । असलियत में परंपरागत तौर तरीकों की अनदेखी ही जल संकट का कारण है। पहले प्रत्येक किसान परिवार में पानी के कुआं, तालाब, चेक डेम आदि का निर्माण किया जाता था । जिससे प्रत्येक वर्ष लाखों लीटर पानी से धरती को पुन: रिचार्ज किया जाता था । महज दस से बीस फीट में लब – लबा जल पानी मिल जाता था । यहां तक की कुआं का पानी नहर का रूप लेकर बहता रहता था जो साफ – स्वच्छ पानी योग्य थी । जिसमें कीटाणुओं की उपस्थिति भी न के बराबर देखने मिलता था ।
आदिवासियों में जल संरक्षण का महत्व सदा से रहा है उन्हें यह गुण प्राकृति ने उपहार स्वरूप प्रदान किया है उसके विवेक में धरती के गर्भ में पल रहे तमाम तरह की विपत्तियों को समझने और जानने का ज्ञान प्राप्त है। वे अशिक्षित होने के वावजूद धरती की चाह को सहज महसूस करते थे। ये पृथ्वी के हर गति विधियों से परिचिय थे तभी वे प्रकृति के प्रति प्यार का भाव रखते हैं और उन्हें मां के रूप में पूजते हैं।
वर्तमान विश्व को जल संकट के विधियों पर गहरा चिंतन और मंथन के साथ परंपरागत जल संरक्षण की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए । तभी प्यासी धरती को शांत रख पीने के लिए जल सुनिशिचत हो पायगी ।