::::मनोज कुमार शर्मा::::
मई 2025 में एक खबर पढा जिसमें झारखंड के बेतला पार्क में बाघों की संख्या के 1 से बढ कर 6 हो गयी है, पर अन्य वन्यजीवों की संख्या घटी है। जिसमें प्रमुख रूप से वनकुकुर (वाइल्ड डॉग) को तकरीबन लुप्त मान लिया गया है। मेरे लिये ये मायूस करने वाली खबर है , मुझे याद है आज से 35 साल पहले भी वन विभाग द्वारा पलामू के बेतला नेशनल पार्क में इन वाइल्ड डॉग्स कि संख्या महज 35 बताई गयी थी। एशियाई जंगली कुत्तों की इस प्रजाति को लेकर मेरी खास रूचि रही है।
अक्सर हमने टीवी पर अफ्रिकी जंगली कुत्तों के बारे में देखा जाना है जो समूह में रहते हैं, जमीन के नीचे मांद में इनके पूरे समूह का निवास होता है जिसका मुखिया एक नर होता है, और ये घेरेबंदी करके अपने से बड़े जानवरों को भी मार गिराते हैं। समूह में ये शेर , लकड़बग्घों और तेंदूओं से भी भिड़ जाते हैं, पर भारतीय जंगली कुत्तों के बारे में बहुत कम जानकारी प्राप्त है। इन्हें ढोल या सोनकुत्ता भी कहा जाता है। ये 3-30 की समूह में रहते हैं, इनके समूह का भी मुखिया एक नर होता है, पर ये रंग में भूरे होते हैं और इनकी झबड़ी पूंछ शीर्ष पर काले बालों वाली होती है। शांत दिखने वाले पर घेरेबंदी कर ढोल अपने से बड़े जानवरों को घेर कर मारने में माहिर शिकारी होते हैं और जंगलों में बाघों से इनका अक्सर टकराव होता है।
कुत्तों की विभिन्न प्रजातियों को वैज्ञानिक रूप से कैनिस नाम दिया गया है, पर भारतीय वनकुकुर अलग प्रजाति में आते हैं इनका वैज्ञानिक नाम कुओं अल्पाइनिस (Cuon Alpinis)है। यह मंझोले कद का घने जंगलों में समूह रहने वाला एक मांसाहारी जीव है। लेकिन घने जंगलो जैसे रहवास के घटने से बाघ जैसे जानवरो के साथ प्रतिद्वंदिता के कारण इसकी संख्या दिनोदिन घटती गयी और झारखंड से वनकुकुर को लुप्तप्राय मान लिया गया है। हम हाथी, भालू, भेडि़यों, लकड़बग्घों, गौड़ , हिरणों के बारे में जितना जानते देखते हैं ठिक इसके उलट हमें वनकुकुर के बारे में बहुत कम जानकारियां और वीडियो मिलते हैं। कहा जाता है कि वन विभाग भी इसके बारे में कम जानकारियां देता है। कभी पूरे एशिया में पाया जाने वाले ये जंगली कुत्ते कुछेक वनों में ही बचे हुये हैं और एक्सपर्ट की माने तो पूरे एशिया में ये महज चार हजार के करीब ही हैं। वनकुकुर के विलुप्ति का कारण सघन वनों का विनाश है क्योंकि यह घने वनों में ही अपने समूह के साथ रहते हैं। इसका शिकार प्राय: कोई मनुष्य शिकारी नहीं करता, ये सघन वनों के न रहने पर भोजन की तलाश में भटक कर बाहर या आबादी की ओर आ जाते हैं जहां अन्य जानवरों या मनुष्यों से टकराव इनकी मौत का कारण बनता है
झारखंड में इनका होना जैवविविधता की दृष्टि से प्रकृति प्रदत्त एक उपहार था जिसका हम संरक्षण नहीं कर सके और आज वनकुकुर झारखंड से विलुप्त हैं।