आदिवासी संस्कृति से हमें सीखनी चाहिये

मनोज शर्मा

सालों पहले एक बार मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ रांची से कुछ किमी दूर साइको नामक जगह पर पिकनिक के लिये गया था। वहां हम सभी नदी के किनारे भोजन कर रहे थे और बहते जल में बर्तन धोने से लेकर हाथ मुंह साफ कर रहे थे। वहां का एक स्थानीय युवक यह सब चुपचाप निराश भाव से देख रहा था। मेरे पूछने पर उसने मुझसे कहा कि इस नदी में हम लोग बगैर पूजा किये मछली भी नहीं मारते थे। लेकिन आज समय बदल गया है। आप लोग शहर से आते हैं और यहां मांस मछली बना कर इसी नदी में झूठे बर्तन से लेकर हाथ मुंह भी धोते हैं।  जबकि यह नदी हमारे लिये पूजनीय है। उसकी इन बातों को सुन कर हम सभी शर्मिंदा हो गये।

9 जुलाई को विश्व आदिवासी दिवस मनाया जा रहा है। सोशल मीडिया से लेकर समाचार पत्रों तक में इस पर कई तरह के लेख, पोस्ट, तस्वीरें देखने को मिलंेगे। इस दिवस के बारे में इतना कुछ और इस तरह से लिखा जायेगा कि यह दिवस भी अंतत: रस्मि सा महसूस होने लगेगा। हकीकत में तो इस दिवस को मनाने से ज्यादा हमें अपने आदिवासी भाइयों के रहन सहन उनके परंपराओं संस्कृतियों से कुछ सीखना चाहिये। आदिवासी समाज अब तक जल जल जमीन की  रक्षा करते आ रहा है। वहां पहाड़ों से लेकर जंगलों, पेड़ों, जलक्षेत्रों को पूजने की परंपरा रही है। परंपरानुसार आवश्यकता से अधिक कभी भी किसी संसाधन का दोहन नहीं किया जाता। और तो और जलस्त्रोतों और कृषि भूमि को देवता का स्थान दिया जाता है।

मेरे मित्र संतोष उरांव ने बताया कि झारखंड की प्रमुख नदी दामोदर का वास्तविक नाम कुड़ख भाषा में दामोदह था वहां रांची के डोरंडा  का वास्तविक नाम दुरंगदह (दो जलस्त्रोत )था । यहां दह का मतलब जल होता है। यह दोनो नाम ही अपभ्रंश होकर दामोदर और डोरंडा हो गये

आज शहरों में तालाबों, झीलों को प्रदूषित करने से लेकर उन्हें जमीन के लिये बर्बाद किया जा रहा है, पर आदिवासी समाज कभी किसी जलस्त्रोत को  बर्बाद  नहीं  करता। वो किसी पेड़ को बस यूं ही नहीं काटते, वो पेड़ो की पूजा करते हैं। स्पष्ट है कि हमारा मूल आदिवासी समाज आधुनिक दौर में भी जल, जंगल, प्रकृति, पर्यावरण को लेकर पारंपरिक रूप से सजग है। हम भले आज विश्व आदिवासी दिवस मनायें अपने हीं भाइयों को संरक्षित की तरह प्रस्तुत करें, पर हकीकत में आदिवासी समाज शहरी सिविलाइज्ड लोगों से ज्यादा समर्पित और प्रकृति का रक्षक है।

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