धान की परती भूमि में तीसी की खेती लाभकारी

● बहुउपयोगी फसल तीसी की बाजार में काफी अधिक मांग
● 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक बुआई का उत्तम समय
● कोलेस्ट्रोल, ह्रदय एवं गठिया रोग में लाभदायक व कैंसर अवरोधी गुण मौजूद
● दिव्या व प्रियम किस्मों की उपज अच्छी एवं तेल की मात्रा ज्यादा

रांची : तीसी में 20 प्रतिशत प्रोटीन, 37 प्रतिशत वसा और 28 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट के अलावा ओमेगा- 3 की भरपूर मात्रा कोलेस्ट्रोल, ह्रदय एवं गठिया रोग में लाभदायक होती है। इसमें मौजूद लीग्नेन नामक तत्व कैंसर अवरोधी होता है। इन सभी गुणों के कारण देश – विश्व के बाजारों में गुणवत्तायुक्त तीसी की मांग काफी ज्यादा है। बेहतर बाजार मांग एवं मूल्य को देखते हुए तीसी फसल की खेती में काफी संभावनाए है।
बीएयू के तीसी फसल विशेषज्ञ डॉ. सोहन राम बताते है कि उन्नतशील किस्मों, वैज्ञानिक शस्य विधियों एवं उचित पौधा संरक्षण से तीसी की खेती किसी भी फसल से अधिक मुनाफा देने में सक्षम है। बहुअयामी औषधीय गुणों से युक्त तीसी की खेती झारखण्ड राज्य में पुन: प्रचलित हो रही है। राज्य गठन के समय वर्ष 2000 में इसकी खेती 7 हजार हेक्टेयर होती थी। कृषि विभाग के प्रतिवेदन के मुताबिक वर्ष 2018-19 में 40 हजार हेक्टेयर में आच्छादन हुआ।
हाल में बिहार एवं झारखण्ड के 65 कृषि विज्ञान केन्द्रों (केवीके) की समीक्षा बैठक में तीसी फसल के रकबे में 18 प्रतिशत व उत्पादन में 20 – 25 प्रतिशत वृद्धि वैज्ञानिकों ने बताया है। ये बातें केवीके द्वारा कराये गये संकुल स्तरीय अग्रपंक्ति प्रत्यक्षण प्रतिवेदन सामने आई।
बीएयू द्वारा विकसित किस्में- दिव्या (सिंचित) और प्रियम (असिंचित) को झारखण्ड एवं बिहार राज्य में किसानों ने काफी पसंद किया है। शोध में दिव्या व प्रियम के अलावा शेखर (सिंचित) किस्मों को प्रदेश में लाभप्रद पाया गया है। दिव्या और प्रियम की उपज क्षमता 12-16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की अपेक्षा शेखर से 7-9 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है।
प्रदेश में प्राचीन काल से तीसी की खेती प्रचलित है। परंपरागत तरीके से कम उत्पादन एवं लाभ की वजह से किसान विमुख हो गए। एक अनुमान के मुताबिक राज्य में हर वर्ष करीब 14।6 लाख हेक्टेयर धान खेती की भूमि परती रह जाती है। इस वर्ष अच्छी वर्षा हुई है। धान की परती पड़ी भूमि में कम सिचाई एवं कम नमी में तीसी (अलसी) की खेती को अपनाकर किसान भरपूर फायदा ले सकते हैं।
बीएयू ने आईसीएआर की अखिल भारतीय समन्वित शोध परियोजना (तीसी) के तहत झारखण्ड की जलवायु के अनुकूल दो किस्मों ‘दिव्या व प्रियम’ को विकसित किया है। इसे केन्द्रीय बीज प्रमाणन एजेंसी ने अनुशंषित किया है। इस वर्ष दोनों किस्मों को सेंट्रल सीड चैन में शामिल किया है। समान जलवायु वाले अन्य राज्यों के शोध संस्थानों को राष्ट्रीय आवश्यकता की पूर्ति के लिए बीज उत्पादन हेतु करीब 3.1 क्विंटल प्रजनक बीज की आपूर्ति की गई है। नेशनल सीड कारपोरेशन को भी 3.1 क्विंटल प्रजनक बीज की आपूर्ति बीज उत्पादन हेतु की गई है।
विश्वविद्यालय द्वारा करीब 10 एकड़ भूमि में बीज उत्पादन कार्यक्रम चलाया गया। मृदा विज्ञान तथा शस्य विभाग में इन किस्मों पर अभिनव शोध अध्ययन जारी है। राज्य के विभिन्न जिलों में केवीके के माध्यम से अग्रिम पंक्ति प्रत्यक्षण (एफएलडी) तथा गत वर्ष उलीहातू (खूँटी) में भी एफएलडी कार्यक्रम चलाया गया’ विवि के मुख्य प्रक्षेत्रों के 6 एकड भूमि में प्रजनक बीज उत्पादन एवं 150 जीनोटाइप पर शोध आकलन किया जा रहा है। तीसी खेती के तकनीकों का किसानो के खेतों में तकनीकी हंस्तातरण से राज्य के सैकड़ो जनजातीय किसानों को तीसी की खेती से आय बढ़ने में मदद मिली है।
झारखण्ड में तीसी खेती का उपयुक्त समय 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक है। तीसी की बुआई में कतारों की दूरी 30 से।मी। और 20-25 किलो प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता होती है। असिंचित अवस्था में 30 किलो नेत्रजन, 20 किलो स्फूर, 20 किलो पोटाश एवं 20 सल्फर उर्वरक तथा सिंचित अवस्था में 80 किलो नेत्रजन, 30 किलो स्फूर, 20 किलो पोटाश एवं 20 किलो सल्फर उर्वरक की मात्रा अनुशंसित है। बुआई के एक माह बाद इसकी निकाई – गुडाई किया जाना आवश्यक होता हैं। 125 -130 दिनों की अवधि वाली इन किस्मों में 35-41 प्रतिशत तक तेल की मात्रा पाई जाती है। डॉ सोहन राम बताते है कि प्रदेश में पैरा या उटेरा तकनीक से भी तीसी की खेती प्रचलित है। इसमें सिंचाई की कमी में धान की फसल पकने के समय खेत में ही तीसी बीज का छिडकाव किया जाता है। जो प्रदेश के दोन-1 और दोन-2 भूमि के लिए मुख्य विकल्प है। सबौर तीसी -1 एवं आरएलसी -143 किस्मों की पैरा या उटेरा तकनीक से खेती से 6-7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज लिया जा सकता है। डॉ. सोहन राम का कहना है कि प्रदेश में तीसी फसल की अंतरवर्ती फसल के रूप में गेहूँ ,चना, मसूर, कुसुम, आलू, प्याज, फ्रेंचबीन और ईख के साथ भी खेती प्रचलित हैं। तीसी के साथ चना/मसूर की मिश्रित खेती (तीन-एक कतार में),गेहूँ मिश्रित खेती (चार-दो कतार में),राई मिश्रित खेती (पांच -एक कतार में) तथा आलू मिश्रित खेती (तीन -तीन कतार में) की जाती है।
समय पर निकाई-गुडाई एवं पौधा संरक्षण से बेहतर उत्पादन एवं लाभ लिया जा सकता है। पोषण सुरक्षा एवं किसानों की आय दुगुनी करने में तीसी की खेती एक सशक्त विकल्प साबित हो सकती हैं।

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