झारखंड में तेलहनी फसलों की खेती की संभावना

झारखण्ड में तेलहनी फसलों की खेती की बहुत ही अच्छी संभावना है इस विषय पर ग्रीन रिवोल्ट ने बीएयू के तेलहन फसल विशेषज्ञ
डॉ. सोहन राम से खास बातचीत की है। उन्होंने विस्तार से इसके बारे में हमें बताया।

भारत में तिलहन उत्पादन का अनुमान
अमेरिकी कृषि विभाग की ग्लोबल एग्रीकल्चर इन्फॉर्मेशन नेटवर्क की रिपोर्ट के मुताबिक अनुकूल मौसम और बढ़ते रोपण क्षेत्र की वजह से भारत का तिलहन उत्पादन वर्ष 2020-21 में बढ़ने का अनुमान जताया है. तिलहन उत्पादन के मामले में भारतीय बाजार में सोयाबीन, रेपसीड,सरसों,मूंगफली, सूरजमुखी फसल प्रमुख हैं और 2 प्रतिशत की दर से 38.4 मिलियन टन तक उत्पादन बढ़ने का अनुमान जताया गया है.
भारत में खाद्य तेल का आयात अनुमान
देश में तिलहन उत्पादन में वृद्धि के बावजूद, यूएसडीए ने पिछले कुछ वर्षों में आयात की प्रवृत्ति को ट्रैक कर पिछले साल की समान अवधि की तुलना में भारत से तेल के आयात में तेजी के बारे में बताया हैं. यूएसडीए का अनुमान है कि भारत 2020-21 के बाजार वर्ष में 2.5 मिलियन टन तेल भोजन का निर्यात करेगा. इस मजबूत खपत मांग से भारत के तेल खाद्यान व्यापार अधिशेष पर दबाव पड़ने की उम्मीद है.
झारखण्ड प्रदेश में तिलहन फसलों की स्थिति
वर्षा आधारित कृषि झारखंड राज्य की प्रमुख विशेषता है. प्रदेश के शुद्ध खेती वाले क्षेत्रों में 10-12 प्रतिशत मात्र सिंचाई की सुविधा है. यह फसल की तीव्रता में कमी (100 प्रतिशत से ऊपर) की मुख्य वजह है. खाद्यान, दलहन और तेलहन फसलों की उत्पादकता राष्ट्रीय औसत से काफी कम है. देश के कृषि विकसित राज्यों की तुलना में भी फसलों की उत्पादन एवं उत्पादकता बहुत कम है. राज्य में चावल, गेहूं और अन्य अनाज के मामले क्रमश: 49%, 91% और 47% की कमी बताई जाती है. जबकि दलहन और तेलहन के मामले में यह 48 और 71 प्रतिशत तक है. सूखे के वर्षों के दौरान समस्याएं बढ़ जाती हैं.
झारखंड में कृषि परिदृश्य के पिछड़े स्वरूप को देखते हुए, केंद्र एवं राज्य सरकार तथा अन्य संगठनों द्वारा राज्य में फसलों और संबद्ध गतिविधियों के उत्पादन और उत्पादकता को बढ़ाने के लिए अनेकों योजनाएं चल रही हैं। राज्य गठन के बाद तेलहनी फसलों के क्षेत्र में काफी वृद्धि हुई है. वर्ष 1999-2000 में तेलहनी फसलों का रकबा महज 59 हजार हेक्टेयर था, जो वर्ष 2006- 07 में बढ़कर करीब 157 हजार हेक्टेयर हो गया. वर्ष 2009-10 में तेलहनी फसलों के क्षेत्र में थोड़ा गिरावट पाया गया. बाद के वर्षो में बढ़ता रुझान दिखा. जो वर्ष 2013 में करीब 260 हजार हेक्टेयर तक पहुंच गया. वर्ष 2014 से उत्पादकता में उतार-चढ़ाव की प्रवृत्ति देखी गई है. जो बाद के वर्षो में कुछ फसलों को छोड़कर ज्यादातर तेलहनी फसलों की उत्पादकता मामले में एक निरंतरता के रूप में चिह्नित किया गया है. हालांकि वर्ष 2013-14 के दौरान औसत उत्पादकता 790 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर देखी गई थी.
तिलहन फसल के क्षेत्र में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय का योगदान
झारखण्ड प्रदेश की कृषि पारिस्थिकी के अनुकूल तेलहनी फसलों के उन्नत किस्मों के विकास में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय (बीएयू) का काफी सराहनीय योगदान रहा है. बीएयू के आनुवांशिकी एवं पौधा प्रजनन विभाग द्वारा विकसित मूंगफली किस्म बिरसा बोल्ड ने देश भर में पहचान स्थापित की है. विश्वविद्यालय द्वारा विकसित मूंगफली की अन्य दो किस्म बिरसा मूंगफली -3 व बिरसा मूंगफली -4 तथा सोयाबीन फसल किस्म बिरसा सोयाबीन -1 तथा बिरसा सफ़ेद सोयाबीन -2 किसानों के बीच लोकप्रिय है.
विभाग के मुख्य वैज्ञानिक एवं तेलहनी फसल विशेषज्ञ डॉ सोहन राम ने वर्ष 1994 से वर्ष 2016 की अवधि में सरगुजा (नाईजर), सरसों (मस्टर्ड) एवं तीसी (लीनसीड) के कुल 7 उन्नत किस्मों का विकास किया है. इन्हें झारखण्ड राज्य में तेलहन फसल किस्मों का जनक कहा जा सकता हैं. इन्होंने सरगुजा की बिरसा नाईजर – 1 (1994), बिरसा नाईजर – 2 (2003) व बिरसा नाईजर – 3 (2008), सरसों की शिवानी (2003) व पूजा -1 (2009) तथा तीसी (अलसी) की दिव्या (2015) एवं प्रियम (2016) को विकसित किया है. इन सभी किस्मों का प्रदर्शन झारखण्ड एवं बिहार राज्य में काफी बेहतर देखा गया है. ये सभी किस्में प्रदेश के किसानों के बीच लोकप्रिय है.
वर्ष 2019-20 में तिलहन फसल के रकबा व उत्पादन में बढ़ोतरी
हाल के दिनों में बिहार एवं झारखण्ड के 65 कृषि विज्ञान केन्द्रों (केवीके) के वैज्ञानिकों की समीक्षा बैठक में तिलहनी फसल के रकबे में करीब 18 प्रतिशत तथा उत्पादन में करीब 20 – 25 प्रतिशत वृद्धि की बात सामने आई. यह आकलन केवीके द्वारा कराये गये तिलहन फसल के संकुल स्तरीय अग्रपंक्ति प्रत्यक्षण के प्रतिवेदन से ज्ञात हुआ. बैठक में झारखंड में दलहनी फसलों के उत्पादन मामले में बहुत हद तक आत्मनिर्भरता को देखते हुए तेलहनी फसलों के उत्पादन एवं उत्पादकता में बढ़ोतरी के लिए विशेष कार्यनीति बनाने पर बल दिया गया. झारखण्ड स्थित सभी 24 जिलों में स्थित केवीके ने प्रदेश के किसान द्वारा सरसों की अंतरफसली खेती की जगह खेतों में शुद्ध सरसों की खेती अपनाने के बारे में बताया. राज्य में तेलहनी फसलों में सरगुजा, तीसी एवं तिल की खेती में गुणात्मक सुधार देखने को मिला।
तेलहन फसलों के किस्मों के विकास में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय (बीएयू) का अग्रणी स्थान रहा है. विश्वविद्यालय के आनुवांशिकी एवं पौधा प्रजनन विभाग के मुख्य वैज्ञानिक (तेलहन) डॉ सोहन राम ने वर्ष 1994 से 2016 तक सरगुजा (नाईजर) की चार, सरसों (मस्टर्ड) की एक तथा तीसी (अलसी, लीनसीड) के दो किस्मों का विकास किया है. झारखण्ड एवं बिहार राज्य के केवीके द्वारा कराये गये संकुल स्तरीय अग्रपंक्ति प्रत्यक्षण में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित सरगुजा की किस्मों बिरसा नाईजर -1, बिरसा नाईजर -2 और बिरसा नाईजर -3 का प्रदर्शन काफी बेहतर पाया गया. बिरसा कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित इन किस्मों को राष्ट्रीय बीज प्रमाणन एजेंसी द्वारा अनुशंषित तथा रिलीज़ किया गया है. ये सभी किस्में झारखण्ड एवं इसके समान अनुकूल जलवायु वाले क्षेत्रों के लिए काफी लाभकारी पाये गये है।
डॉ सोहन राम बताते है कि इन किस्मों के स्टेट सीड चैन में बढ़ावा तथा संरक्षण देने की जरूरत है. जिसके अभाव में झारखण्ड प्रदेश को इन विकसित किस्मों का पूरा लाभ नहीं मिल पा रहा है. बीएयू ने सरगुजा (नाईजर) की किस्मों में बिरसा नाईजर -1, बिरसा नाईजर -2, बिरसा नाईजर -3 तथा पूजा -1 को विकसित किया है. सरसों (मस्टर्ड) की एक किस्म शिवानी तथा तीसी (अलसी) के दो किस्मों दिव्या एवं प्रियम को विकसित किया है. इन किस्मों को तकनीकी प्रदर्शन के माध्यम से केवीके एवं क्षेत्रीय अनुसंधान केन्द्रों द्वारा प्रसार कार्य किये जा रहे है. डॉ सोहन राम का कहना है कि तेलहनी फसल में अपार संभावनाओं को देखते हुए राज्य द्वारा मिशन मोड में अभियान चलाने की जरूरत है।
केंद्र एवं राज्य सरकार तेलहनी फसलों के उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि लाने के लिए सरसों, सोयाबीन, मूंगफली, तिल, तीसी व सूर्यमुखी की खेती को प्रोत्साहित किया जा रहा है. चालु रबी मौसम के प्रदेश में स्थित 10 कृषि विज्ञान केन्द्रों में आयल सीड हब कार्यक्रम चालु होने जा रही है. इसमें राज्य के किसानों को परम्परागत बीज की जगह इन फसलों के उन्नत व संकर प्रभेद के बीज का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा .साथ ही रबी में परती व असिंचित भूमि में कम उत्पादक अनाज फसलों के स्थान पर इन तेलहनी फसलों के उत्पादन को बढ़ावा दिया जायेगा. इस कार्यक्रम के कार्यान्वयन से तेलहनी फसलों के क्षेत्र विस्तार को बढ़ावा मिलेगा और भूमि की उर्वरता भी बरकरार रहेगी. तेलहन उत्पादन के क्षेत्र में राज्य आत्मनिर्भरता की ओर अग्रणी होगा. तेलहन फसल की खेती से किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार लाया जा सकता है. साथ ही ग्रामीण स्तर पर रोजगार के अवसर में भी वृद्धि होगी।
प्रदेश में कुसुम की खेती के लिए ए. – 300 तथा अक्षागिरी -59-2-1 किस्में अनुसंशित हैं. अगात धान काटने के तुरंत बाद दो – तीन जुताई के बाद पाटा चलाकर खेत की तैयारी करनी चाहिए. इसकी बुआई मध्य अक्टूबर से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक की जा सकती है . अधिक ठण्ड पड़ने से बीज अंकुरण पर बुरा असर पड़ता है. एक हेक्टेयर के लिए 15-20 कि. ग्रा. बीज की आवश्यकता होती है. बुआई में कतार की दूरी 30-45 से. मी. रखनी चाहिए. बुआई के समय 25 कि. ग्रा. यूरिया, 45 कि. ग्रा. डी.ए.पी. तथा 34 कि. ग्रा. एम. ओ. पी. का प्रति हेक्टेयर की दर से व्यवहार करना चाहिए. बुआई के एक माह के अंदर निकाई – गुडाई अवश्य कर लेनी चाहिए. कुसुम में रोग एवं कीट का प्रकोप कम होता है.
तोरी – राई एवं पीला सरसों
प्रदेश में तोरी की खेती के लिए पी. टी. 203 व पंचाली, राई की खेती के लिए शिवानी, पूसा बोल्ड, पूसा मस्टर्ड – 25 व एन.आर.सी.एच.बी. – 101 तथा पीला सरसों के लिए एन.आर.सी.वाई. एस. -05-02 किस्मों की अनुशंसा की जाती हैं. इसकी उपज क्षमता 4-10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथा करीब 42 प्रतिशत तेल की मात्रा पाई जाती है. एक हेक्टेयर में बुआई के लिए 5 कि. ग्रा. बीज की आवश्यकता होती है. बुआई में कतारों की दूरी 30 से. मी. तथा पौधों की दूरी 10 से. मी. रखनी चाहिए. तोरी में 50:25:25:20 कि. ग्रा. नेत्रजन, स्फूर, पोटाश एवं सल्फर तथा राई में 80:60:40:20 कि. ग्रा. नेत्रजन, स्फूर, पोटाश एवं सल्फर उर्वरक प्रति हेक्टेयर की दर से व्यवहार करना चाहिए.।
सूर्यमुखी
सूर्यमुखी की खेती के लिए डी.आर.एस.एफ. – 108 (ओपी) तथा के.बी. एस.एच. (संकर) किस्में अनूशंषित हैं. अगात धान काटने के तुरंत बाद दो – तीन जुताई के बाद पाटा चलाकर खेत की तैयारी करनी चाहिए. रबी में बुआई के पूर्व खेतों में पर्याप्त नमी का होना जरूरी हैं. इसकी बुआई अक्टूबर से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक की जा सकती है . एक हेक्टेयर के लिए 8-10 कि. ग्रा. बीज की आवश्यकता होती है. बुआई में कतारों की दूरी 60 से. मी. तथा पौधों की दूरी 30 से. मी. रखनी चाहिए. बुआई के समय 40 कि. ग्रा. नेत्रजन, 50 कि. ग्रा. स्फूर, 50 कि. ग्रा. पोटास एवं 25 कि. ग्रा. सल्फर प्रति हेक्टेयर की दर से व्यवहार करना चाहिए. बुआई के 20-25 दिनों बाद तथा 35-40 दिनों के बाद निकाई – गुडाई अवश्य कर लेनी चाहिए. इसकी खेती में बुआई के 20-25 दिनों बाद 3 सिंचाई की जरूरत होती है।
तीसी (अलसी)
प्रदेश में तीसी की खेती के लिए दिव्या (सिंचित), प्रियम (असिंचित) तथा सुरभि किस्में अनूशंषित हैं. इसकी उपज क्षमता 9-12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथा करीब 43 प्रतिशत तेल की मात्रा पाई जाती है. अगात धान काटने के तुरंत बाद दो – तीन जुताई के बाद पाटा चलाकर खेत की तैयारी करनी चाहिए. इसकी मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर तक की जा सकती है . एक हेक्टेयर के लिए 20-25 कि. ग्रा. बीज की आवश्यकता होती है. बुआई में कतारों की दूरी 30 से. मी. रखनी चाहिए. बुआई के समय 30 कि. ग्रा. नेत्रजन, 20 कि. ग्रा. स्फूर, 20 कि. ग्रा. पोटास एवं 20 कि. ग्रा. सल्फर प्रति हेक्टेयर की दर से व्यवहार करना चाहिए. बुआई के एक माह के अंदर निकाई – गुडाई अवश्य कर लेनी चाहिए. रोगग्रस्त भूमि में तीसी की खेती नहीं करनी चाहिए. किरण एवं आर -552 रोग रोधी किस्मों का व्यवहार की जा सकती है।

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