रांची में कम हो रहा बारिश का पैटर्न

अनंत सौरव

रांची एक समय चरम गर्मियों में अपने सुखद और ठंडे मौसम के लिए प्रसिद्ध था। 1912 से 2000 तक रांची संयुक्त बिहार की ग्रीष्मकालीन राजधानी थी, हम सभी रांची को एक हिल स्टेशन के रूप में जानते हुए बड़े हुए थे। जब पड़ोसी क्षेत्र लू औरभयंकर गर्मी से जूझ रहे होते थे तो  रांची में नियमित रूप से प्री-मानसून भारी वर्षा होती थी। लेकिन अब अनियंत्रित विकास के युग में राजधानी की यह विशिष्टता खो गयी है।

रांचीवासी अब अक्सर गर्मी के दिन में बाकी जगहों की तरह ही त्रस्‍त होते  हैं, अब दोपहर में प्री-मानसून के बादल नहीं बनते है प्रकृति से उपहार में मिलती रही  नॉरवेस्टर के बादल जो थोड़ी सी गर्मी बढने पर ही रांची में राहत की बारिश कराते थे वो खत्‍म हो गये है।

आसपास की पहाड़ियाँ, घने जंगल, जल निकायों की निकटता और नमी से भरपूर हवा के कारण मानसून में बहुत भारी वर्षा होती थी। दोतरफा मानसूनी हवाओं के दोहरे प्रभाव, यानी क्रमशः बंगाल की खाड़ी से दक्षिण-पश्चिम और अरब सागर से दक्षिण-पूर्व, ने मानसून के मौसम के दौरान वर्षा को बढ़ा देते थे । लेकिन अब ऐसा नहीं हो पा रहा।  झरनों के शहर का प्राकृतिक उपहार चिंताजनक रूप से ख़त्म हो रहा है। चूँकि अरब सागर की दक्षिण-पूर्वी हवा नगण्य है, इसलिए बंगाल की खाड़ी से आने वाली दक्षिण-पश्चिमी हवा मानसून के मौसम में लगभग पूरी वर्षा का बोझ उठाती है, जो अक्सर देर से होती है और इस प्रकार धान की फसलों, सिंचाई पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है और पानी की कमी का कारण बनती है। धान की खेती ही झारखंड और की प्रमुख उपज है।

2000 में, झारखंड राज्य को बिहार से अलग कर दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप अनियोजित और अंधी दौड़ के निर्माण और विकास गतिविधियों के साथ-साथ बिहार, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल से बड़े पैमाने पर पलायन हुआ। 2001 और 2011 की आधिकारिक जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, रांची का हर तरफ विस्तार हो रहा है जबकि जनसंख्या लगभग दोगुनी हो गई है। नतीजतन, वन क्षेत्र, पेड़, नदी और कृषि भूमि का अतिक्रमण किया गया है। इन कारकों ने शहर की जलवायु पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है जिससे वर्षा और पानी की कमी प्रभावित हुई है। यदि हम अब भी स्थिति की गंभीरता को नहीं समझते हैं, तो जल्द ही यह ऐसी स्थिति होगी जहां से वापसी संभव नहीं होगी, क्योंकि प्रकृति लंबे समय से चेतावनी जारी कर रही है।

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