- मनोज शर्मा
कार्बाइड और केमिकल से पकाये गये आम केला और पपीता दिखते सुदर हैं, पर सेहत के लिये हैं खतरनाक
गर्मियों में बाजार में फलों की भरमार है। आम, केला, पपीता, लीची, तरबूज, अंगूर । इनमें आम, केला और पपीते को खरीदते वक्त आम आदमी उसके पीले और चमकदार होने पर ध्यान देता है। सभी मान लेते हैं कि पीले रंग का होना यानि वह बिल्कुल पका हुआ, मीठा और स्वादिष्ट होगा, लेकिन हकीकत इससे अलग है।
बाजार में आम केले पपीते का पीलापन जो मुंह में पानी ला देता है, वह कृत्रिम है और जबरन चीन निर्मित हानिकारक रासायनों से पका कर उसे यह सुंदर रूप दिया गया है। आपने गौर किया होगा कि आज कल मिलने वाला सिंगापुरी केला दिखता बिल्कुल पका हुआ पीला है , पर खाने में इसमें न स्वाद है न मीठापन, इसका गुदा भूंसे की तरह लगता है। ऐसा ही आम और पपीते के साथ भी है। सुंदर लाल पीला दिखने वाला गुलाबखस आम अक्सर खट्टा या पनसोह स्वद लिये होता है। हालांकि आम की सिर्फ शुरूआती आमद ही ऐसी होती है अपने मौसम के चरम पर आम रसीले और मीठे होते हैं। दरअसल ये तीनो फल इस तरह से जबरन पकाये जाते हैं जो बेस्वाद होने के साथ ही स्वास्थ्य के लिये खतरनाक है।
केला धुंकना – हमारे देश में फलों का प्राकृतिक रूप से पकाने की परंपरा रही है। जिससे फल स्वादिष्ट और हानिरहित होते थे, लेकिन इस विधि में फलों के पकने में दो दिन ज्यादा समय लगता था। आम को बोरे में रखकर भूंसे के ढेर में दबा दिया जाता था अगर उसे कागज में लपेट कर बोरे में रखते थे तो यह बिल्कुल पीला भी हो जाता था। वहीं केले को पकाने के लिये उसके घवद को बोरे में भर कर पुआल बिछे गड्ढे में डाल दिया जाता था और उसे मिट्टी से ढक दिया जाता था अब उसे गड्ढे के बिल्कुल सटा एक छोटा गड्ढा बना कर दोनो गड्ढों को आपस में जोड़ देते थे। छोटे गड्ढे में एक छोटे से घड़े में गेंहूंका भूंसा भर कर उसे उलट कर फिट कर देते थे और उसकी पेंदी में एक छोटा सा छेद कर देते थे। इस छेद में दिन भर में जब तब थोड़ा सा आग डाल कर मुंह से फुंकते थे। यह आग भूंसे को जलाती हुई धुंये को अंदर बड़े गड्ढे में रखे केले तक पहुंचती थी। इसे ही केला धुंकना कहते हैं। दिन भर में एक दो बार यह धुंकने का काम किया जाता था बच्चों के लिये धुंकना खेल सा होता था और दो से तीन में केला हानिरहित और पक कर तैयार हो जाता था। छठ के समय गांवों में केले को ऐसे ही घर घर पकाया जाता था। आज यह तरीका कार्बाइडऔर चीनी रासायनों से फलों को तुरंत पकाने की सुविधा के कारण लुप्त हो गया है और कोई इसके लिये परिश्रम भी नहीं करना चाहता, पर फलों को पकाने की यह देसी तकनीक बिल्कुल हानिरहित थी।