सिर्फ पर्यटन और कृषि से भी संवर सकता है झारखंड

 

पर्यटन के मानचित्र पर छा सकता है झारखंड

मनोज कुमार शर्मा

1989 में तत्कालीन कृषि मंत्री चौधरी देवीलाल झारखंड के दौरे पर थे। इस दरम्यान उन्होंने झारखंड के जंगलों, पहाड़ों, नदियों झरनों को देखा और मंत्रमुग्ध हो गये। तब बिहार था और देवीलाल झारखंड के इलाके से अनभिज्ञ थे। उन्हें लगा था के इधर भी बिहार के जैसे ही मैदानी इलाके होंगे? चौधरी देवी लाल ने झारखंड की खुबसूरती को देखा और उनके मुंह से यही बात निकली कि….. बिहार का यह इलाका इतना सुंदर है और कमाल है कि यह पर्यटन के मानचित्र पर नहीं है और पिछड़ा हुआ है?हरियाणा में अगर ये सब होता तो हम इसे एक उद्योग के रूप में विकसित कर चुके होते? आज झारखंड राज्य बने दो दशक हो चुके हैं, पर पर्यटन के मानचित्र पर हम बहुत पिछड़े हुये हैं। जबकि राज्य में खुबसूरत प्राकृतिक दृश्यों की भरमार है। पर्यावरणविद् और भूगर्भशास्त्री नितिश प्रियदर्शी का कहना है कि झारखंड का इलाका हिमालय से भी पुराना है और यहां इतनी प्रागैतिहासिक चट्टानें और पुरातात्विक महत्व की चीजें हैं कि उन पर शोध हों तो अप्रत्याशित तथ्य निकल कर आयेंगे, लेकिन वो सब यूं ही बर्बाद हो रहे हैं। सिर्फ कानून व्यवस्था में सुधार रोड ,रेल नेटवर्क दुरूस्त हो जाये तो पर्यटन और कृषि के बाद झारखंड में किसी बड़े प्रदूषक उद्योग धंधों की कोई आवश्यकता ही नहीं होगी?

जब झारखंड के पद्मश्री सम्मानित गायक, लेखक मधु मंसुरी हंसमुख गाते है….गांव छोड़ब नाही, जंगल छोड़ब नाही तब ऐसा लगता है कि कोई आम झारखंडी अपने खुबसूरत झारखंड को कभी नहीं छोड़ेगा। लेकिन झारखंड में पलायन बड़ी समस्या है। पढने से लेकर रोजगार के लिये देश भर के महानगरों में जाने की मजबूरी यहां दशकों से है। हालत यह है कि मानव तस्करी जैसे जघन्य अपराध को भी फलने फूलने का सामान झारखंड जैसे राज्य से ही मिलते रहा है। दिल्ली मुंबई जैसे महानगरों में घरेलु काम करने से लेकर फैक्ट्रियों में मजदूरी करते झारखंड के युवा मिल जायेंगे।

       यह दुखद आश्चर्य की बात है कि जिस झारखंड से देश की कई महत्वपूर्ण जरूरतें पूरी होती है उसी झारखंड में पलायन एक बड़ी समस्या है। सिर्फ धान रोपाई के मौसम में ही यहां के सुदूर गावों में वापस लौटे लोगों से रौनक रहती है अन्यथा अन्य महिनों में मूल झारखंडी रोजी रोटी के लिये पलायन कर जाता है। बिहार से अलग होने से पहले झारखंड औद्योगिक इलाका था, आज भी है। लेकिन उद्योग धंधों से सभी झारखंडियों को रोजगार नहीं मिलता। वहीं खनिजों और कोयले के खनन से स्वयं राज्यवासियों को कितना लाभ मिला है? वह यहां से पलायन देखने पर शोध का विषय है।
प्रकृति ने झारखंड को सब कुछ दिया है। दुनिया भर के खनिजों के अलावा पर्यटन के लिये असीम संभावनायें और ऐसा मौसम वातावरण कि फूलों की खेती से लेकर यहां बागवानी, औषधीय पौधों की खेती सब कुछ प्रचुरता से हो सकता है । इसके बाद भी झारखंड का युवा रोजी रोटी के लिये पलायन कर जाता है।
एक बार योग गुरु बाबा रामदेव रांची आये थे तो उन्होंने पत्रकारों से बातचीत में कहा कि हमारे आयुर्वेदिक दवाओं के निर्माण के लिये औषधीय पौधों और जड़ी बूटियों की बड़ी जरूरतें तो सिर्फ झारखंड से ही पूरी होती हैं। स्पष्ट है कि झारखंड में अभी औषधीय कृषि को और बढावा देने की जरूरत है।राज्य के एक कृषि वैज्ञानिक ने ग्रीन रिवोल्ट को बताया था कि झारखंड का मौसम फूलों की खेती के लिये सबसे अनुकूल है। अगर यहां के लोग और सरकार इस क्षेत्र को प्रोत्साहन दें तो झारखंड फूलों के उत्पादन में अव्वल हो सकता है। जबकि आज भी यहां फूलों की आवक बंगाल से है। बहुत कम लोगों ने अब तक इस ओर ध्यान दिया है।

कुछ साल पहले राज्य में स्ट्राबेरी की खेती प्रायोगिक तौर पर की गयी थाी। उसका बेहतरीन रिजल्ट निकला। यहां पैदा हुयी स्ट्राबेरी की एक किस्म स्वाद में यूरोप के स्ट्राबेरी को भी मात दे रही है, पर आज तक उसकी व्यावसायिक खेती संभव नहीं पायी है। कुछेक गिने चुने लोगों ने ही इसका प्रयास किया है।दरअसल झारखंड में जितनी प्राकृतिक संपदा, व्यावसायिक खेती के लिये अनुकूल मौसम उपलब्ध है उसका समुचित दोहन अब तक नहीं किया जा सका है। तकरीबन 28 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि में सिर्फ एकफसली धान की खेती होती है। जब कि इसी झारखंड में कभी चाय की भी खेती होती थी।

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