अमूल्य धरोहरों के प्रति लापरवाह है झारखंड

मनोज कुमार शर्मा

एतिहासिक व प्रागैतिहासिक स्थलों से समृद्ध राज्य, एंद्रजालिक प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण जहां पर्यटन के एक रोजगारपरक उद्योग बनने की अपार संभावनायें दिखती हैं।

पहाड़ों को काट कर बेचने का जुनून
झारखंड का मूल सौंदर्य यहां के जंगलों और उनमें स्थित पहाड़ियां है। लेकिन ये सबसे दुखद बात है कि झारखंड कि किसी भी जिले में चले जायें वहां यह देख सकते है कि क्रशर उद्योग विशाल खुबसूरत पहाड़ियों को लील रहे हैं। ग्रीन रिवोल्ट जब नवरत्नगढ जाकर इस पुरातात्विक महत्व के किले की जानकारी एकत्र कर रहा था तो वहां के सबसे बड़े पहाड़ की कटाई चालू थी, और उसका एक बड़ा हिस्सा क्रशर उद्योग की भेंट चढ चुका था। उस पहाड़ पर कई बड़ी मशीने लगी हुयीं थीं जो पत्थर काट और ढो रही थीं। क्रशर के लिये बेतहाशा पहाड़ियों की कटाई में कई ऐसे पहाड़ों को भी लुप्त कर दिया गया होगा जो एतिहासिक और पुरातात्विक महत्व की रही होंगी। दुसरी बात की पहाड़ों का होना जल संरक्षण और पर्यावरण के लिये भी जरूरी है।

विश्व में कई देश ऐसे हैं जिनकी अर्थव्यवस्था सिर्फ पर्यटन से ही चलती है। यूरोप का स्वीट्जरलैंड इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। हमारे देश में गोआ की अर्थव्यवस्था में भी सबसे बड़ा हिस्सा पर्यटन का ही है। झारखंड को अगर हम गौर से देखें तो हमारा राज्य सिर्फ खनिज संपदा के मामले में ही समृद्ध नहीं है बल्कि प्राकृतिक सुंदरता और एतिहासिक, प्रागैतिहासिक स्थलों से भी परिपूर्ण है। लंबे समय तक झारखंड का यह सौंदर्य बाहरी लोगों के नजरों से ओझल रहा। किताबों में भी सिर्फ हुंडरू या अन्य गिने चुने जलप्रपातों क ा उल्लेख मिलते रहा, पर राज्य बनने के बाद झारखंड की खुबसूरती धीरे-धीरे सबों के सामने आयी। देश विदेश के नेताओं और लोगों ने जब झारखंड को करीब से देखा तो वह यहां की खुबसूरती देख कर मंत्रमुग्ध से हो गये, पर उन्हें इस बात का दुखद आश्चर्य भी हुआ कि इतना खुबसूरत राज्य जो सिर्फ पर्यटन से भी समृद्ध हो सकता है वह पलायन झेल रहा है और वह पर्यटन के मानचित्र पर कहीं नहीं दिखता।
झारखंड के जाने माने पर्यावरणविद् और भूगर्भविज्ञानी डॉ. नितिश प्रियदर्शी का कहना है कि झारखंड की भूमि हिमालय से भी करोड़ो वर्ष पुरानी है और यहां प्रागैतिहासिक काल के बहुत सारे स्थल हैं। जहां ऐसे इक्के दुक्के स्थल अन्य राज्यों में हैं वहां इस पर शोध हो रहे हैं और इसे प्रचारित भी किया जा रहा है, पर झारखंड स्वयं अपने इन अमूल्य धरोहरों से अनभिज्ञ है और ये धरोहर बर्बाद हो रहे हैं। अगर आप झारखंड के अंदरूनी हिस्सों में घूमें तो कई ऐसी अप्रत्याशित चीजें दिख जायेंगी जो अमूल्य हैं, पर उनका संरक्षण तो दूर की बात है वहां सर्वत्र ऊंचे विशाल पहाड़ियों को दैत्याकार मशीनों से काट कर उसके पत्थरों को बेचने का धंधा चालू है। सरकारें आती जाती हैं, किसी खास पर्यटन स्थल पर महोत्सव करवा कर बैनर होर्डिंग तो लगा जाती हैं, पर इन स्थलों को बर्बाद होने से बचाने की कोशिश किसी ने नहीं की।

नवरत्न गढ़
गुमला के सिसई में 17वीं शताब्दी में बनाया गया नवरत्नगढ का किला किसी अजूबे से कम नहीं है। नागवंशी राजाओं की यह नगरी चारो ओर पहाड़ों और चट्टानों से घिरी हुई है जो किसी प्राकृतिक किले का काम करते हैं। कहते हैं कि नागवंशी राजा दुर्जनशाल ने मुगल शासक जहांगीर की कैद से छूटने के बाद यहां इस नगर को बसाया था। इसे डोइसागढ भी कहते हैं। यहां कभी नौमंजिली इमारतें भी हुआ करती थीं और पत्थरों को काट कर एवं हस्तनिर्मित इटों से महल, मंदिर और दरबार बनाये गये थे। जब इसका पुरातात्विक महत्व समझ में आया तो इसे यूनेस्कों की धरोहरों में शामिल तो कर लिया गया, पर इसके संरक्षण का अब तक कोई काम नहीं हुआ है। शोध हों तो यहां की पहाड़ियां भी कई रोचक राज छुपायें हुये मिलेंगी?

मलूटी का गुप्तकाशी
मलूटी झारखण्ड राज्य के दुमका जिले में शिकारीपाड़ा के निकट एक छोटा सा कस्बा है। यहाँ 72 पुराने मंदिर हैं जो बज बसन्त वंश के राज्यकाल में बने थे। इन मन्दिरों में रामायण तथा महाभारत और अन्य हिन्दू ग्रन्थों की विविध कथाओं के दृष्यों का चित्रण है। ये मंदिर टेराकोटा यानि मिट्टी से ही बने हुये हैं। लंबे समय तक इनके संरक्षण की मांग होती रही और कुछ साल पहले इन मंदिरों के संरक्षण का काम किया गया। अब जानकारों का कहना है कि गलत संरक्षण के कारण इन मंदिरों का मूल स्वरूप ही खत्म कर दिया गया। बताया जा रहा है कि अब इन मंदिरों के दिवारों पर संरक्षण के नाम पर टाइल्स चिपका दिये गये हैं। प्रारंभ में भी कुछ जानकारों ने यहां दिवारों पर टाइल्स लगाने के काम पर आपति जतायी थी।

रांची पहाड़ी का हाल बेहाल
क्या कभी आपने ऐसा सोंचा है कि ऐसे कितने शहर होंगे जिसके बीचो बीच कोई रमणिक हरी भरी पहाड़ी हो और जिसकी चोटी से हम पूरे शहरा का नयनाभिराम अवलोकन कर सकें? रांची इस मायने में अप्रतिम है। शहर के बीच में रांची पहाड़ी है जिसे रिची बुरू और फांसी टुंगरी नाम से भी जाना जाता है। इस पहाड़ी की चोटी से पूरे शहर का अवलोकन किया जा सकता है, यह पहाड़ी हिमालय से भी पुरानी है और खोंडोलाइट चट्टानों की बनी हुइ है, पर इसका संरक्षण तो दूर इसे धंसाने और बर्बाद करने का काम अनवरत जारी है। कभी आस्था के नाम पर , कभी संवारने के नाम पर , कभी देश के सबसे बड़े तिरंगे को फहराने के नाम पर इस खुबसूरत पहाड़ी के साथ शहरवासियों से लेकर, सरकार तक ने सिर्फ  क्षति पहुंचायी है?

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