चाईबासा की रोरो खदान प्रभावितों को राहत, मुआवजा देगी सरकार

संवददाता

चाईबासा रोरो पहाड़ियों के आस पास के 14 गावों के लोगों पर खतरनाक एसबेस्­टस कणों का खतरा मंडराता रहा है। सालों पहले यहां एस्­बेस्­टस निर्माण के सामग्री के लिये पहाड़ों का खनन होता था। बाद में यहां खनन बंद हो गया। इन खदानों को वैज्ञानिक तरीके से बंद करना था लेकिन उसे जैसे तैसे ही छोड़ दिया गया। अब टनों खतरनाक एस्­बेस्­टस मटेरियल खदान के आस पास के गांवों, सड़कों, खेतों , तालाबों और रोरो नदी तक में फैले हुये हैं। और प्रदूषण फैलाते रहे हैं। एस्­बेस्­टस के ये कण यहां के निवासियों के स्­वास्­थ्­य को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं।
रोरो में 1963 में हैदराबाद एस्­बेस्­टस लिमिटेड को एस्­बेस्­टस निर्माण में सीमेंट बनाने की सामग्री के लिये खनन का लीज मिला था। यही कंपनी अब हैदराबाद इंडस्­ट्रीज लिमिटेड (ऌकछ) नाम से जानी जाती है। उस वक्­त 1500 के करीब लोग इस खदान में काम करते थे। और तब रोरो पहाड़ी यह खदान एशिया की सबसे बड़ी एस्­बेस्­टस खदान थी। 1983 में कंपनी ने एकाएक घाटा बता कर इस खदान को बंद कर दिया और खतरनाक एस्­बेस्­टस सामग्रियों से युक्­त खदानों को बिना पर्यावरणीय मानको को पूरा किये ऐसे ही छोड़ दिया। तब से आज तक यह क्षेत्र खतरनाक एस्­बेस्­टस कणों की चपेट में है। एस्­बेस्­टर के महीन कण सासों के माध्­यम में शरीर में प्रवेश कर जायें तो वह लंबे समय तक बने रहते हैं और अंतत: फेफड़ों के कैंसर के अलावा कई रोग पैदा करते हैं।
जब तक यहां खदान चालू था और लोगों को रोजगार मिला हुआ था तब तक आजीविका के कारण लोगों को यहां से निकलने वाले एस्­बेस्­टस कणों से खतरे का भय नहीं था। लेकिन सीमेंट एस्­बेस्­टस के स्­वास्­थ्­य के लिये खतरनाक होने की जानकारी होने पर विश्­व के कई देशों में इस पर बहुत पहले ही रोक लग चुकी है। देश में भी एस्­बेस्­टस को फैक्­ट्री एक्­ट 1948 के सिडयूल 3 में खतरनाक माना गया है और जहां भी इसका उत्­पादन या निर्माण होता है वहां सुरक्षा के लिये कड़े मानदंड हैं।

झारखंड सरकार के एस्बेस्टस खानों पर प्रस्तुत रिपोर्ट में कई खामियां
एचआईएल लिमिटेड ने एनजीटी के समक्ष जो रिपोर्ट पेश की है उसमें जानकारी दी है कि झारखंड सरकार द्वारा जो एस्बेस्टस खानों पर जो रिपोर्ट प्रस्तुत की गई है उसमें कई खामियां हैं। यह खानें पश्चिम सिंहभूम में चाईबासा की रोरो पहाड़ियों पर स्थित हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार 9 अगस्त को जो सरकारी रिपोर्ट प्रस्तुत की गई है, उसमें गलत जानकारी दी गई है| रिपोर्ट के अनुसार एचआईएल द्वारा इन एस्बेस्टस खानों की बहाली के लिए जरुरी कदम नहीं उठाए गए हैं| साथ ही पर्यावरण और स्वास्थ्य पर पड़ रहे दुष्प्रभावों को रोकने के लिए सुरक्षा उपायों को नहीं अपनाया गया था। उदाहरण के लिए इन खानों से एस्बेस्टस धूल का प्रदूषण जारी था जिसके चलते स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ा था और तालाबों और नदियों का पानी दूषित हो गया था।
रिपोर्ट में कहा गया है कि एस्बेस्टस खानों को 1983 में बंद कर दिया गया था, साथ ही जिन्हें 1984 में एचआईएल ने सरेंडर कर दिया था। जिसपर 1985 में बिहार सरकार की स्वीकृति भी मिल गई थी इसके बाद बिहार सरकार ने इसे फिर से पट्टे पर देने के लिए खदान का नाम भी बदल दिया था। एचआईएल के अनुसार उसने इन खानों को बिहार सरकार (अब झारखंड) को क़ानूनी तौर पर सौंप दिया था। 1985 के बाद जब खानों का समर्पण कर दिया था, उसके बाद खानों पर केवल बिहार सरकार का अधिकार था। इसलिए उसे प्रदूषक नहीं कहा जा सकता है।
जनवरी 2020 में एनजीटी ने कार्रवाई करते हुये राज्­य सरकार से यहां के खतरनाक खुले खदानों को बंद कर सुरक्षित बनाने इससे प्रभावित लोगों और ग्रामीणों को मुआवजा देने को कहा था। अगस्­त में झारखंड सरकार ने जानकारी के अनुसार एनजीटी के समक्ष 13.45 करोड़ की एक योजना प्रस्­तुत किया ताकि लोगों को मुआवजे के साथ ही उनके स्­वास्­थ्­य की जांच, उनके पुनर्वास­ पर काम किया जायेगा और खुले खदानों को बंद कर सुरक्षित बनाया जायेगा। अब देखना है कि लंबे समय से इन खदान से प्रभावितों को कितनी राहत मिलती है?

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